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आजकल कुछ अजीब सा रिश्ता है दुनिया से
कभी अपने मर्म आसूँओं को
बंद मुट्ठी में छिपा कर रखती हूँ
तो कभी औरों की खुली मुस्कान में
अपनी खुशियों को ढूँढती हूँ
कभी दिन भर पलंग पर पड़े पड़े
दीवार पर लटकी तस्वीरों को देखती रहती हूँ
तो कभी नंगे पाँव बाहर निकल
अनजान मज़िलों का रस्ता ढूंढती हूँ
कभी अपनों को औरों की गलियों में देख
बिखरे टुकड़े समेटने लगती हूँ
तो कभी घर की दहलीज़ पर बैठ
अजनबी मुसाफिरों में अपनों को ढूँढती हूँ
कभी शहर की ऊँची इमारतों में
सादगी को मींची आँखों में छिपाती हूँ
तो कभी पानी में बहते बुलबुलों में
बचपन की गुदगुदियाँ ढूंढती हूँ
कभी दोस्तों के साथ पि हुई चाय की प्याली में
अपने अकेलेपन के अवशेष देखती हूँ
तो कभी शहर के भरे बाज़ारों में
खुद को, औरों की कहानियों में ढूँढती हूँ
आजकल कुछ अजीब सा रिश्ता है दुनिया से
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